असाध्य वीणा

नमस्कार मित्रों 🙏
मैं आपलोगों के साथ सचिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' द्वारा रचित लम्बी कविता असाध्य वीणा पर अपनी बात रखना चाहता हूँ ।

हिंदी साहित्य को जब हम देखते है तो सहज रूप से हमारे सामने उसके चार काल स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है । हम काल विभाजन पर बात न करते हुए सीधे आधुनिक काल की बात पर आते है जिसका समय 1850 के बाद का हैं । आधुनिक हिंदी साहित्य में भारतेंदु युग में हिंदी साहित्य का अप्रत्याशित विस्तार एवं विकास देखने को मिलता है । लेकिन इस समय भी काव्य भाषा के तौर पर खड़ी बोली हिंदी वह स्थान न प्राप्त कर सकी जो  गद्य विधाओं ने प्राप्त किये । कुछ कवि जरूर इस भाषा मे कविता लिख रहे थे । लेकिन इसका सहज विकास द्विवेदी युग (आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर) में होता है । द्विवेदी युग में श्रीधर पाठक , मैथिलीशरण गुप्त व अन्य की रचनाओं में खड़ी बोली हिंदी काव्य भाषा के रूप में धीरे-धीरे परिमार्जित होकर कोमल होती जा रही, उसके बाद भी उसमें गद्यात्मकता विद्यमान हैं, और उसमें इस तरह की कोमलता देखने को नहीं मिलती जिस तरह तत्कालीन उर्दू साहित्य में हैं । इसके साथ ही साथ हिंदी का गद्य साहित्य भी अपेक्षाकृत ज्यादा तेजी से विकसित होता हैं और छायावादी दौर आते-आते मुख्य रूप से कहानी और उपन्यास महाकाव्यों के सामने एक चुनौती प्रस्तुत करने में सक्षम हो जाता हैं । इस चुनौती के कसमसाहट में जयशंकर प्रसाद ने कामायनी की रचना कर उस चुनौती को कम करने की कोशिश करते हैं और व्यक्तिगत तौर पर वह बहुत हद तक सफल भी होते हैं, और इस तरह से कामायनी अपने आप में एक अनूठे किस्म का महाकाव्य के रूप में हमारे सामने आता हैं , लेकिन उस दौर के अन्य कवियों के यहाँ इससे जूझने का साहस कम दिखलाई पड़ता हैं, तो वह अपनी बात कहने के लिए प्रबंध शैली में लिखे गए कविताओं के तरफ प्रस्थान करते हैं । जिसमें आख्यानमुलक कविताएँ थोड़ी लम्बी प्रतीत होती हैं । इस तरह से अगर कहा जाए कि लम्बी कविताओं ने उस चुनौती से लड़ने का साहस प्रदान किया । लम्बी कविताओं का दौर देखे तो उसमें सुमित्रानंदन पंत के परिवर्तन (1926) , प्रसाद  के प्रलय की छाया (1931-32) में हमारे सामने देखने को मिलती हैं । इसी कड़ी  में निराला की सरोज स्मृति , राम की शक्ति पूजा , तुलसीदास, कुकुरमुत्ता  आदि देखने को मिलते है । छायावादी कविताओं के बाद जब हम बात करते है स्वतंत्रोत्तर कविताओं की तो हमें लम्बी कविताओं के रूप में मुक्तिबोध की अंधेरे में और ब्रह्मराक्षस , धूमिल की पटकथा एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में हमारे सामने उपस्थित होती हैं । लेकिन प्रकाशन वर्ष के हिसाब से देखे तो निराला के बाद और मुक्तिबोध से पहले एक लम्बी कविता का नाम और आता हैं वह हैं असाध्य वीणा  । सरोज स्मृति जहाँ शोक गीत है तो वहीं राम की शक्ति पूजा सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक भावभूमि की कविता है । दूसरी तरफ मुक्तिबोध एवं धूमिल की लंबी कविताएँ गहरे राजनैतिक एवं व्यक्तिगत संघर्षों की कविता है । इन सब से उलट असाध्य वीणा एक मिथकीय आख्यान की कविता है । नामवर सिंह के अनुसार जो छोटी कविताएँ होती है वह मुख्यतः कम शब्दों में अपने अत्यधिक भावानुभूति के कारण उसमें प्रगीतात्मकता होती है, जबकि लम्बी कविताओं में यह सम्भव नहीं है । परंतु नामवर सिंह द्वारा दिये गए इस कथन के ठीक उलट है यह कविता । यह लम्बी कविता होने के बाद भी प्रगीत के श्रेणी में आती हैं । अज्ञेय की इस कविता असाध्य वीणा की साहित्य जगत में कम ही चर्चा हुई है, उतनी चर्चा न हुई जितनी मुक्तिबोध (अंधेरे में,ब्रह्मराक्षस, चाँद का मुँह टेढ़ा है), और धूमिल (पटकथा, भाषा की रात, मोचीराम ) की हुई । यद्यपि इसका प्रकाशन इनसे पूर्व (आंगन के पार द्वार -1961) हुआ था । इसका कारण कई आलोचक असाध्य वीणा के रहस्यवाद को मानते है । इस कविता पर जो भी बात हुई उसका आधा हिस्सा यह साबित करने में खर्च हो गया कि इसपर बौद्ध दर्शन कितना प्रभाव है और यह जापानी लोककथाओं से मिलता जुलता है, तो वहीं आधा हिस्सा इसके अर्थ को ही विस्तार देने में खर्च हो गया ।

        असाध्य वीणा की मूलकथा बौद्ध धर्म के एक सम्प्रदाय या ध्यान सम्प्रदाय से ली गई है । ताओंवादियों के यहाँ भी इसकी कहानी मिलती है । यह ओकाकुरा काकुजो के The Book of Tea में The Taming of the Harp के नाम से संकलित है। आरंभिक बौद्ध धर्म भौतिकवादी है, परन्तु महायान जेन सम्प्रदाय तक आते-आते यह काफी हद तक औपनिषदिक भाववाद के निकट पहुँच जाता हैं । महायान के विज्ञानवाद एवं शून्यवाद सम्प्रदाय भी क्रमशः  विज्ञान एवं शून्य की परमता स्वीकारते हैं, जिनकी संकल्पना काफी हद तक उपनिषदों का ब्रह्म जैसी हैं । वस्तुतः महायान बौद्ध धर्म के  औपनिषदिक चिंतन से इतनी निकटता के कारण ही  शंकराचार्य को "प्रच्छन्न बौद्ध" होने का आरोप झेलना पड़ा था ।

         जेन सम्प्रदाय यह मानता है कि सत्य का ज्ञान वस्तुतः आत्मज्ञान है । इसे बाह्य आडम्बरों और पुस्तकों से प्राप्त नहीं किया जा सकता । अज्ञेय ने इसी जेन सम्प्रदाय की एक कथा को अपने विचार प्रक्रिया तथा भारतीय चेतना के साथ मिलाकर असाध्य वीणा में प्रस्तुत किया है । यहाँ किरीटी तरु परम सत्य का प्रतीक है, जिससे निर्मित वीणा का संगीत उस सत्य की अभिव्यक्ति है। बहुत जाने माने कलावंत और संगीतकार इस वीणा को बजाने में इसलिए निष्फल होते है, क्योंकि उनमें न सिर्फ उस परमसत्ता के प्रति समर्पण का अभाव था, बल्कि अपने कलावंत होने का अभिमान भी कूट-कूट कर भरा था । प्रियंवद कलावंत नहीं है।  वह स्वयं को साक्षी कहता है - जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी । यह सत्य अनकहा है । वाणी की गति तक नहीं है । इस सत्य का सिर्फ साक्षी हुआ जा सकता है । यह सत्य सिर्फ अनुभूति का विषय है और इस अनुभूति के लिए आवश्यक है अहम का पूर्ण परित्याग । अपने अहम को गलाकर ही जीवन सत्य को अनुभव किया जा सकता है । प्रियंवद स्वयं को तरु तात की गोद में बैठा हुआ मोद भरा बालक मानता है --

       " वीणा यह मेरी गोद रखी हैं रहे
         किंतु मैं ही तो तेरी गोदी बैठा मोद भरा बालक हूँ ।"

       परम सत्य के प्रति समर्पण के बिना उससे  एकाकार नहीं हुआ जा सकता। प्रियंवद समर्पित होकर किरीटी तरु में जैसे परकाया प्रवेश कर लेता है और जीवन सत्य के विभिन्न रूप उसके स्मृतिपटल पर क्रमशः आने लगते है ।
     "हाँ मुझे स्मरण है......"
      वीणा का बोलना उस परम सत्य की ही अभिव्यक्ति है ।
     "जो शब्दहीन होकर भी सबमें गाता हैं ।"

      परन्तु इस सत्य का प्रभाव सब पर एक सा नहीं होता क्योंकि - "जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी ।" राजसभा में उपस्थित सभी व्यक्तियों ने अपनी-अपनी समझ, सोच एवं संस्कार के अनुसार इस सत्य को ग्रहण किया । कवि ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से उदाहरण देकर इस सत्ता के प्रभाव को व्यक्त किया है--
      "बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सौंधी खुदबुद"

       अज्ञेय की काव्ययात्रा की सबसे बड़ी चिंता रही है, सर्जना प्रक्रिया या रचना प्रक्रिया । आज तुम शब्द न दो, नया कवि आत्म स्वीकार जैसी कई कवितायें सर्जना प्रक्रिया के रहस्य को उद्घाटित करने की कोशिश करती है । अनुभूति की अनिर्वचनीयता एक रचनाकार की सबसे बड़ी समस्या और सीमा है । अज्ञेय जीवन भर इस समस्या से जूझते रहे -

       "कवि ने गीत लिखे ये बार बार
         उसी एक विषय को देता रहा विस्तार
         जिसे कभी पूरा पकड़ पाया नहीं "

      असाध्य वीणा को भी अज्ञेय के सर्जना प्रक्रिया सम्बन्धी चिंतन से जोड़ा जा सकता है। सर्जना के लिए अहम का परित्याग उसी तरह जरूरी है जिस तरह ब्रह्म की प्राप्ति के लिए । वस्तुतः सर्जना आत्मविस्मृति के क्षणों में होती है। कवि अपने अहम को उद्दीप्त कर के कविता नहीं रच सकता । प्लेटो ने एक दूसरे सन्दर्भ में कहा है कि "काव्य रचना के समय कवि एक दैवीय आवेग में रहता है ।" कहने  का मतलब यह है कि रचना के समय कवि अपने आप में नहीं होता । यह बात प्लेटो ने कविता को हेय  बताने के लिए नकारात्मक सन्दर्भ में कही थी परन्तु इस तथ्य की सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता । सर्जक होने का दम्भ श्रेष्ठ सर्जना नहीं करवा सकता --
      "कौन प्रियंवद है कि दम्भ कर
        इस अभिमंत्रित कारूवादय के सम्मुख आवे ।"

     रचना निःसन्देह सर्जक की सर्जना होती है लेकिन साथ-साथ यह रचना ही सर्जक का निर्माण भी करती है - 
        "लोग तो लागी है कवित बनावत
          मोहि तो मेरे कवि बनावत " (घनानन्द)

      वीणा भले ही प्रियंवद के गोद मे रखी है पर वह स्वयं को तरुतात की गोद का बालक मानता है किंतु जैसे वीणा से संगीत उत्पन्न होता है वीणा संगीतकार के सामने शिशु के रूप में सामने आती है-
" वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक मानो गोदी में सोये शिशु को
   डाल कर मुग्धा माँ हट जाय, दीठ से दुलराती "

         इस प्रकार रचना एक साथ सर्जक की सर्जना भी है और उसका  सर्जन भी करती हैं । 
        कविता में जीवन के विभिन्न सुंदर एवं असुंदर पक्षों के चित्रों की एक बिम्बमाला सी आती है । अज्ञेय अनुभूति को अत्यधिक महत्व देते हैं। उनकी दृष्टि में जीवनानुभूति और बौद्धिकता के संश्लेष से ही कविता होती हैं । कहीं न कहीं यह परंपरा जयशंकर प्रसाद से जुड़ती है, ठीक उसी प्रकार से जैसे मुक्तिबोध की परंपरा निराला से जुड़ती हैं । जीवन के ये विभिन्न चित्र विविध अनुभूतियाँ ही अंततः काव्य में ढलती हैं ।
      इस प्रकार अज्ञेय की दृष्टि में अहम का विगलन और अनुभूति की प्रमाणिकता-सर्जना अपने सर्जक से स्वतंत्र होती हैं -
     " श्रेय नहीं कुछ मेरा मैं तो डूब गया स्वयं शून्य में "

     स्वातंत्र्य से उत्पन्न यह सर्जना प्रभाव में भी स्वतंत्रतादायी होती हैं । राजसभा में संगीत सुनने वालों ने अपनी अपनी रुचि के अनुसार अर्थ ग्रहण किया । यह प्रभाव की स्वतंत्रता का ही परिचायक है ।

     इस प्रकार असाध्य वीणा  एक साथ न सिर्फ जीवन के परम सत्य की खोज करती है बल्कि रचना प्रक्रिया के विभिन्न चरणों को उद्धरित करती हैं ।

निष्कर्ष - इस कविता के माध्यम से अज्ञेय यह बताना चाहते है कि हम खुद को अपने जीवन के प्रति जितना समर्पित करेंगे उतना ही अपने जीवन को समझ सकते है और इस जीवन का आनंद ले सकते है, रसास्वादन कर सकते है । पूर्ण समर्पण में ही पूर्ण प्राप्ति सम्भव है ।

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