मानसून और मेंढ़क
मानसून का महीना तो चल ही रहा , ऐसे में मेढ़कों का निकलना, उनका टर्राना स्वाभाविक बात हैं । भाई, लॉकडाउन लगा और फासिस्ट सरकार ने अभिव्यक्ति पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं । गाहे बगाहे एक आध जो आर्टिकल छपते थे, वह भी आजकल फेसबुक या फलाना - ढिमकना लाइव शो के माध्यम से काम चलाना पड़ रहा है । जिस तरह मेढ़कों की कई प्रजातियां होती हैं, कुछ छोटे, कुछ मझोले और कुछ बड़े आकार के, उसमें भी कोई कम उछलने वाला, कोई लम्बी छलांग मारने वाला, ठीक उसी प्रकार से इन मेढ़कों का भी हाल है । कुछ लम्बा फेंकते हैं तो कुछ औक़ातनुसार छोटा ही फेंकते हैं । कई बार तो इतना दम लगाकर फेंकते हैं कि उनका दम ही उखड़ जाता हैं । फेंकते समय उन्हें न्यूटन बाबा के ग्रेविटी वाले खोज का भी स्मरण नहीं होता, और अपने को एकदम अलग प्रकार के मेंढक समझ कर सुपरहीरो वाली फिलिंग के साथ आसमान पर थूकते हैं । आजकल यह चलन कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया हैं । ऐसे समय में जब सारे के सारे मेंढ़क अपने कन्दराओं में एक महीने का अज्ञातवास बिताने के बाद बाहर निकले तो इतना टर्राए कि जो तुलसीदास ने लिखा था "दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई" अगर वह आज जिंदा होते तो अवश्य लिखते "दादुर धुनि चहु दिसा दुःखदायी ।" मेंढ़क उछल उछल कर मदारी भी दिखाने लगे और ऐसा दिखाए कि जो मदारी वाले बंदर थे बेचारे अपने स्वेच्छा से अपने को सेवामुक्त कर लिए । आख़िर मनोरंजन करने की जो जिम्मेदारी उनके कंधों पर थी वह तो अब मेंढ़कों ने ले रखी है । बेरोजगार होते हुए भी बंदर सरकार के नीतियों पर सवाल नहीं उठा सकते क्योंकि सरकार में तो इन्हीं बंदरों का मदारी बैठा है । आख़िर उसके इशारों पर ही तो ये बंदर जनता का मनोरंजन करते फिरते थे । अब जबकि मेंढ़क ही मनोरंजन कर दे रहे तो भला इनका क्या काम ? और मेंढ़क भले कैसे अच्छे मदारी न हो उनके पास तो कवियों ने ही विशिष्ट लक्षण ढूंढें थे । "ऊँट की बैठक, हिरण की चाल /जिसके सिर पर दुम न बाल/ बोलो बच्चों वह कौन पहलवान ?" "एक छोटा-सा बंदर ,/जो उछले पानी के अंदर।" आदि लक्षण तो कवियों द्वारा ही खोजा गया हैं । अब जबकि इतने गुणों से वह परिपूर्ण है, स्वयं बंदर का भी गुण धारण किये हुए है, ऐसे में उनकी जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि अपने अभी गुणों के मुताबिक करतब दिखलाए । इन मेंढ़कों में भी कुछ रसूखदार मेंढ़क है । उनका काम हैं, अपनी करतब को श्रेष्ठ बताना, और बाकी छोटे-मोटे मेंढ़कों का नियुक्ति और सर्वश्रेष्ठ मेंढ़क पुरस्कार से सम्मानित करवाना । इसके एवज में छोटे मेंढ़क को चमचागिरी जैसे सर्वोत्तम गुण में पारंगत होना चाहिए, जीवन भर वो बड़े मेंढ़क के एहसान के लिए उसकी चमचागिरी स्वीकार करनी होती हैं और साथ ही इस मेंढ़क परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए जीवटता का होना अतिआवश्यक तत्व है ।
इन्हीं मेंढ़कों में से कुछ मेंढ़क बंदर और मदारी को गाली देकर अपने आप को बड़े मेंढ़कों की जमात की मेंढ़क बताने पर आमादा हैं । चूंकि बौने होने के कारण स्पष्ट रूप से नज़र नहीं आने वाले मेंढ़क कूद-कूद कर, उचक-उचक कर या यूँ कहें कि अंगूठे पर खड़ा होकर, अपनी ऊँचाई नपवाना चाहते हैं । जब इससे भी उनकी ऊँचाई थोड़ा कम रह जाती हैं तो दूसरे मेंढ़क थोड़ी सहायता करते हैं और अपनी पीठ पर बैठाकर कहते हैं कि फलां फलां ने भी तो बंदर और मदारी दोनों को गाली दी थी, फिर उनकी ऊँचाई नाप ली गई, लेकिन इन छोटे की क्या गलती, यह तो पैदा होने के साथ से ही गाली देना सिख लिया । अब जब गाली देने से ही मेंढ़कों को लाल मेंढ़क की उपाधि मिलती हैं तो भला इनकी क्या गलती । अपने आप को रंगबिरंगा मेंढ़क दिखाने के लिए कुछ तो लाल मेंढ़क होने के बाद पंकज पाने के लिए पंक में समा गए ।
ये मेंढ़क इतने चालू और चालबाज किस्म के है कि जिनकी रोटी खाते हैं, उन्हें ही रातभर सोने नहीं देते । पता नहीं टर्राने के ही दौरान कोई ऐसी मधुर तान निकल जाए जिसकी साधना तानसेन से भी न हो पाए । लेकिन इन सबके बीच जनता इस दुविधा में पड़ जाती हैं कि इतने सारे मेंढ़क करतब दिखा रहे, अब भला किस मेंढक को सुना जाए, किसको गुना जाए और किसको धुना जाए यह तय नहीं कर पाती । बेचारी भोली जनता ने शुरू में तो इन मेंढ़कों का जोरदार अभिवादन किया था और जमकर वाहवाही भी की थी । लेकिन जनता के भी सहनशक्ति की एक पराकाष्ठा होती है , जैसे जैसे मेंढ़क पुराने और अपने बार-बार दिखाए जा रहे करतब को ही दुहराते है, जनता अब दूसरे मेंढ़क के तरफ रूख़ करती हैं जो अपेक्षाकृत नया करतब दिखा रहा । लेकिन बरसात से पहले किसको ऐसी उम्मीद थी कि इस बार इतनी बारिश होगी कि सारे मेंढ़क निकल जाएंगे । चूंकि अब उनके निकलने के बाद भी बरसात रुकी नहीं और पानी अब लबालब हो चुका हैं । जल्द ही मेंढ़कों से राहत की उम्मीद हैं ।

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