राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन को मेरा ख़त

आदरणीय पुरुषोत्तम दास टण्डन जी

सादर प्रणाम

                 हमलोग यहाँ कुशल हैं, आशा करता हूँ कि आप जहाँ भी होंगे कुशल होंगे । यह पत्र आपको एक बात बताने के लिए लिख रहा हूँ । आपने जो "बंदर सभा" नाम से जो कविता 'हिंदी प्रदीप' में लिखी थी, वह तो अपने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लिखी थी, लेकिन देखिये न अब आपका बंदर स्वदेशी हो गया है । मदारी का यह बंदर पता नहीं कब अपने मदारी के पास से भाग गया और अपनी एक फौज बना ली है । इस बंदरों के फौज का मुख्य काम जानते हैं । इनका काम है , सबको बंदर बनाने की कोशिश करना । दुःख की बात यह नहीं कि ये बंदर बना रहे, जिसको बनना है बने, लेकिन दुःख इससे होता है कि जो बंदर नहीं बनता उनको यह लोग दाँत काट लेते है । बताइये ऐसा कौन करता है ? आपका बंदर तो विदेशी था इसलिए यहाँ के लोगों का दुःख दर्द नहीं समझता था और उनके रक्त, माँस पर अपना अधिकार समझता था लेकिन देशी बंदर तो दिखावा करता है कि वह आपके दुःख को समझ रहा है, फिर भी रक्त और माँस की इसको आदत लग गई है । अब आप ही बताइये, हमलोग क्या करें ..?

                एक बात और बतानी थी, बंदरों से ही सम्बंधित है । आपने हिंदी के लिए कितना कुछ किया, इतना लड़ाई लड़े । बंदर भी हिंदी भाषा के पैरोकार कहते है खुद को, लेकिन अपना एक भी लेटर हिंदी में नहीं लिखते । हमारे जैसे लोग जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती, समझ भी पाते हैं वो क्या क्या कह जाते हैं, और नहीं समझने पर वह काटने की धमकी देते हैं । बताइये न उनको कि भारत का कोई राष्ट्रभाषा नहीं है, हमको बहुत बुरा लगता हैं, वह हमारे लिए हिंदी को राष्ट्रभाषा बना दें । वह हिंदी को विश्व भर में फैलाने की बात करते हैं, लेकिन घर में ही ये हाल है । 

              एक सज्जन कल कह रहे थे । अरे हिंदी दिवस के उपर टिप्पणी करके कि हमारे ऊपर हिंदी थोपी जा रही हैं, ऐसा नहीं किया जा सकता । आप उनको सपने में बताइये न हिंदी भारत की पहचान हैं, और एक राष्ट्र के पास एक ऐसी भाषा होनी चाहिए जिसे पूरा देश बोले समझें । कह दीजिये न उनको कि हिंदी इतनी प्यारी भाषा है, जिसने सभी भाषाओं का बाहें खोलकर स्वागत किया हैं, सबके शब्दों को अपना समझा और गले लगा लिया । बताइये इतना उदार कौन भाषा हैं ? 

          एक काम और कीजियेगा कि हिंदी के द्रोणाचार्यों को थोड़ा समझाइए । वे लोग इतना कठिन-कठिन अस्त्र-शस्त्र लेकर आते हैं कि बेचारे शिष्य समझ ही नहीं पाते । और सबसे बड़ी शिकायत इनसे यह है कि ये लोग केवल अपने मुठ्ठी भर दुर्योधनों को ही सब जगह लगा देते हैं, बेचारे अर्जुन मारे-मारे फिरते हैं । 


                दादा, कोई बढ़िया सा उपाय बताइये, इनसब से छुटकारा पाने के लिए । बाकी सब खैरियत हैं, वहाँ सबको मेरा प्रणाम कहिएगा और आशीर्वाद में हमको ताकत दीजियेगा कि हम आपलोग जो काम अधूरा छोड़कर गए थे उसे पूरा करने में अपना थोड़ा सा योगदान दे सकूँ । बाकी बात अगले ख़त में । 

     पत्र मिलते ही जबाब दीजियेगा । आपके ख़त के इंतजार में.......



आपका बाबू

उज्ज्वल सिंह 'उमंग'

काशी हिंदू विश्वविद्यालय 

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