काशी हिंदू विश्वविद्यालय के शिलान्यास कार्यक्रम में महात्मा गाँधी का सम्बोधन

         यहाँ पहुँचने में देरी के लिए मैं आपसे क्षमा-याचना करता हूँ । और  आप इस याचना को तुरन्त स्वीकार कर लेंगे, जब मैं आपसे कहूँगा की इस देरी के लिए मैं जिम्मेदार नहीं था और न ही कोई मानवीय एजेंसी । सच्चाई यह हैं कि मैं एक दिखावटी जीव हूँ और अपनी अति दयालुता में मेरे पालनकर्ता उस जीवन के आवश्यक अध्याय की हमेशा अनदेखी करते हैं, और यह एक विशुद्ध हादसा है । उस मामले  में उन्होंने-मेरे, उनके और मेरे वाहकों के सामने आने वाले हादसों की श्रृंखला के लिए कोई व्यवस्था नहीं की थी । इसलिए देरी हुई ।

        मित्रो, श्रीमती बेसेंट, जो अभी-अभी यहाँ आकर बैठी हैं, की अनुपम वाक्पटुता से यह न सोचें कि हमारा विश्वविद्यालय एक तैयार वस्तु बन चुका है और इस विश्वविद्यालय, जिसे अभी बनकर अस्तित्व में आना बाकी है, में प्रवेश लेने के इच्छुक सारे विद्यार्थी आ चुके हैं और एक महान साम्राज्य के अच्छे नागरिक बनकर निकल चुके हैं । इस प्रकार की किसी धारणा को लेकर नहीं जाइएगा और यदि आप, विद्यार्थी समुदाय के लोग जिनके लिए आज शाम का मेरा भाषण रखा गया है, एक क्षण के लिए भी यह समझते हों कि आध्यात्मिक जीवन, जिनके लिए यह देश सुविख्यात है और जिस क्षेत्र में उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं, केवल जबानी बताया जा सकता है तो विस्वास कीजिये, आप गलत हैं । आप केवल जबान से यह संदेश कभी नहीं दे सकेंगे कि भारत एक दिन विश्व का उद्धारक बनेगा । मैं आपको बतलाने का साहस करता हूँ कि भाषणबाजी में अब हम अपने साधनों के अंतिम छोर पर जा पहुँचे हैं । मैं स्वयं भाषणों से तंग आ चुका हूँ । पिछले दो दिनों में यहाँ दिए गए भाषणों को मैं उस श्रेणी में नहीं रखता, क्योंकि वे आवश्यक हैं । परंतु एक बात मैं आपसे कहना चाहूँगा कि भाषणों की उपयोगिता अब लगभग खत्म हो चुकी है । यह काफी नहीं है कि हमारे कानों की तृप्ति हो, या हमारी आँखों की तृप्ति हो, बल्कि आवश्यकता इस बात की है कि हमारे हृदय झंकृत हो उठें और हमारे हाथ पैरों में गति उत्पन्न हो जाए ।
        बहुत दिनों से यह कहा जा रहा है कि यदि हमें भारतीय चरित्र की सादगी बनाए रखनी है तो यह कितना आवश्यक है कि हमारे हाथ और पैर हमारे दिलों से कदम मिलाकर चलें । परंतु यह केवल प्रस्तावना भर है । मैं यह कहना चाहता था कि हमारे लिए यह घोर अपमान और शर्म की बात है कि आज मुझे, इस महान कॉलेज की छाया में और इस पवित्र शहर में अपने देशवासियों को ऐसी भाषा में सम्बोधित करना पड़ रहा है, जो मेरे लिए विदेशी है । मैं जानता हूँ कि भाषणों की इस श्रृंखला को सुनने के लिए जो लोग दो दिनों से यहाँ आ रहे हैं, यदि मुझे उनका परीक्षक नियुक्त किया जाए और मैं उनकी परीक्षा लूँ तो इन भाषणों पर ली गई परीक्षा में अधिकांश लोग फेल हो जाएँगे । और क्यों ? क्योंकि उनके दिलों को नहीं छुआ गया है ।
           दिसम्बर माह में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में मैं उपस्थित था । वहाँ उस सभा मे बहुत अधिक श्रोता थे और जब मैं आपसे कहूँ तो क्या आप विस्वास करेंगे कि बंबई के उस विशाल जन-समूह को केवल उन्हीं भाषणों से छुआ था, जो हिंदुस्तानी में दिए गए थे । और ध्यान रहे कि यह बनारस, जहाँ सभी लोग हिंदी बोलते हैं, में नहीं बल्कि बम्बई में हुआ । परन्तु बम्बई प्रेसीडेंसी की क्षेत्रीय भाषा और  हिंदी में ऐसी कोई स्थायी विभाजन रेखा नहीं है, जैसी अंग्रेजी और भारतीय भाषा के बीच हैं; और कांग्रेस के श्रोता हिंदी में बोलनेवाले वक्ताओं को आसानी से समझ सकते हैं । मुझे आशा है कि यह विश्वविद्यालय इस बात का ध्यान रखेगा कि जो युवा इसमें प्रवेश लेंगे, उन्हें उनकी मातृभाषा में शिक्षा दी जाएगी । हमारी भाषाएँ  हमारा प्रतिबिम्ब हैं और यदि आप कहते हैं कि हमारी भाषाएँ इतनी समृद्ध नहीं है कि वे सर्वोत्तम विचारों को अभिव्यक्त कर सकें तो इसके बजाय यह कहिए कि जितनी जल्दी हमरा अस्तित्व मिट जाए उतना ही अच्छा । क्या कोई ऐसा आदमी है, जो यह सपना देखता हो कि अंग्रेजी कभी भारत की राष्ट्रभाषा बन सकती है ? राष्ट्र को इस असुविधा में क्यों डाला जाए ? एक पल के लिए सोचिए कि एक अंग्रेज लड़के के साथ हमारे लड़को की दौड़ कितनी समान है ।
            मुझे पूना के कुछ प्रोफेसरों के साथ गम्भीर चर्चा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । उन्होंने मुझे विश्वास दिलाया कि प्रत्येक युवा, क्योंकि वह अंग्रेजी के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करता है, अपने जीवन के कम-से-कम छः कीमती वर्ष खो देता है । इसको हमारे स्कूलों और कॉलेजों से निकलने वाले छात्रों की संख्या से गुणा कर दीजिए और खुद ही जान लीजिए कि राष्ट्र को कितने हजार वर्षों की हानि हुई है । हमारे खिलाफ आरोप यह है कि हम किसी भी बात की पहल नहीं करते । हम कैसे कर सकते हैं; जब हमें अपने जीवन के कीमती वर्ष एक विदेशी भाषा में दक्षता प्राप्त करने में ही रखने पड़ते हैं । हम इस प्रयास में भी असफल रहते हैं । कल और आज जो वक्ता यहाँ बोले, क्या उनके लिए श्रोताओं को उतना प्रभावित करना सम्भव था जितना कि हिगिन-बॉथम के लिए था ? यह पूर्व वक्ताओं का दोष नहीं था कि वे श्रोताओं को बाँध नहीं सके । उनके भाषणों में हमारे लिए बहुत कुछ सारपूर्ण था । परन्तु उनके विचार, भाषा के कारण हमारे भीतर तक उतर न सके । मैंने लोगों को यह कहते सुना है कि भारत में आखिरकार अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोग ही हैं, जो नेतृत्व कर रहे हैं और राष्ट्र के लिए सबकुछ कर रहे हैं । अगर ऐसा नहीं होता तो बड़ी विचित्र बात होती । हम जो भी शिक्षा प्राप्त करते हैं, वह अंग्रेजी शिक्षा ही है । निश्चित रूप से, हमें उसकी कुछ उपलब्धि तो दिखानी ही है । परंतु मान लीजिए कि पिछले पचास वर्षों से हम अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा प्राप्त कर रहे होते तो हमारे पास क्या होता ? आज भारत स्वतंत्र होता, हमारे पास ऐसे शिक्षित व्यक्ति होते, जो अपने ही देश में विदेशी जैसे न लगते, बल्कि देश के हृदय से उनका संवाद होता, वे गरीब-से-गरीब लोगों के बीच कार्य कर रहे होते और पिछले पचास वर्षों में उन्होंने जो कुछ हासिल किया होता, वह राष्ट्र की विरासत होता । आज तो हमारी पत्नियाँ तक हमारे सर्वोच्च विचारों से सहमत नहीं होती । आप प्रो• बोस और प्रो• राय के शानदार अनुसंधानों को देखिए । क्या यह शर्म की बात नहीं है कि उनके अनुसंधान जनसाधारण की पहुँच में नहीं हैं ?
   
अब हम एक अन्य विषय पर आते हैं :
            कांग्रेस ने स्व-शासन से सम्बंधित एक प्रस्ताव पास किया हैं और मुझे संदेह नहीं है कि अखिल भारतीय कांग्रेस समिति एवं मुस्लिम-लीग अपने कर्तव्य का पालन करेंगे और कुछ ठोस सुझाव सामने रखेंगे । परन्तु मुझे खुले दिल से यह स्वीकार करना चाहिए कि मैं इस बात में उतना उत्सुक नहीं हूँ कि वे क्या करवाई करते हैं, जितना विद्यार्थी समुदाय या जनसाधारण की हलचलों में हूँ । कोई कागजी करवाई हमें स्व-शासन प्रदान नहीं करेगी । कितने भी भाषण हमें स्व-शासन के क़ाबिल नहीं बनाएँगे । केवल हमारा आचरण हमें उसके क़ाबिल बनाएगा । और यह कि हम स्वयं को कैसे अनुशासित करते हैं । क्या यह उचित है कि हमारे पवित्र मंदिरों की गलियां इतनी गंदी हों ? गलियाँ संकरी और टेढ़ी-मेढ़ी हों ?
               आज की शाम मैं अपनी सोच आपके साथ बाँटना चाहता हूँ। मैं कोई भाषण देना नहीं चाहता और यदि आप मुझे वाक्-संयम रूप से बोलता देखें तो यही सोचिएगा कि आप उस व्यक्ति के विचारों के सहभागी न रहे हैं, जो अपने दिल की बात सुनाने की आजादी ले रहा हैं । यदि आप समझते हों कि मैं शिष्टाचार-सम्मत मर्यादाओं का उल्लंघन कर रहा हूँ तो मैं जो अनाधिकार चेष्टा कर रहा हूँ उसके लिए मुझे क्षमा कीजिए  । यदि आपको लगे कि मैं सौजन्यता की सीमा लाँघ रहा हूँ तो यह स्वतंत्रता लेने के लिए मुझे क्षमा करें । कल शाम को मैं विश्वनाथ मंदिर गया था और जब उन गलियों से गुजर रहा था, तब इन विचारों ने मेरे हृदय को स्पर्श किया । यदि इस मंदिर पर आकाश से कोई अजनबी अवतरित हो और वह इस बात पर विचार करे कि हिंदुओं के रूप में हम क्या हैं, तो हमें निकम्मा ठहराने में क्या वह युक्तिसंगत नहीं होगा ? क्यायह भव्य मंदिर हमारे अपने चरित्र का प्रतिबिंब नहीं है ? एक हिन्दू के रूप में मैं बहुत भावुकता से यह बात कह रहा हूँ । क्या यह सही है कि हमारे उस पवित्र मन्दिर की गलियाँ तंग और घुमावदार हैं । यदि हमारे मन्दिर ही खुलेपन और स्वच्छता के आदर्श न हों तो हमारा स्व-शासन कैसा होगा ? क्या अंग्रेजों के भारत छोड़ते ही हमारे मन्दिर धार्मिक, पवित्रता, स्वच्छता एवं शांति के घर बन जाएँगे ?
            मैं कांग्रेस अध्यक्ष की इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि सब-शासन के बारे में सोचने से पहले हमें जरूरी मेहनत करनी होगी । प्रत्येक शहर में दो भाग हैं - छावनी और मुख्य शहर । शहर अधिकांशतः गंदगी के अड्डे हैं । परंतु हम शहरी जीवन के अभ्यस्त नहीं हैं । यदि हम शहरी जीवन चाहते हैं तो हम शहरों को सरल सुस्त कस्बों का प्रतिरूप नहीं बना सकते । यह सोचना रुचिकर नहीं है कि भारतीय लोग बम्बई की सड़कों पर इस स्थायी भय के साथ चलते हैं कि बहुमंजिला इमारतों में रहने वाले लोग उन पर थूक न दें । मैं रेल से अक्सर सफर करता हूँ । मैं तीसरे दर्जे में सफर करने वाले यात्रियों की परेशानियों को देखता हूँ ; परन्तु उनकी सभी मुसीबतों का लिए रेल प्रशासन को दोष नहीं दिया जा सकता । हमें स्वयं सफाई के बुनियादी नियमों का पता नहीं है । हम इस बात का ध्यान रखे बिना रेलगाड़ी के डिब्बे के फर्श पर कहीं भी थूक देते हैं कि वह लोगों द्वारा अक्सर सोने के लिए इस्तेमाल किया जाता है । हम इस बात का ध्यान रखने का कष्ट बिल्कुल नहीं उठाते कि हमें उसे कैसे इस्तेमाल करना चाहिए । नतीजा होता है कम्पार्टमेंट में अवर्णनीय गंदगी । तथाकथित ऊपर के क्लासों में सफर करने वाले यात्री अपने कम भाग्यशाली भाइयों पर रोब गाँठते हैं । उन्हीं में मैं छात्र जगत को भी देखता हूँ ; कभी-कभी उनका व्यवहार भी इससे बेहतर नहीं होता । वे अंग्रेजी बोल सकते हैं तथा नॉरफ्रॉक जैकेट पहन रखी है, अतः उन्हें डिब्बे में घुसकर सीट माँगने का अधिकार है ।
             मैंने अपनी सर्चलाइट चारों ओर घुमा दी है और चूँकि आपने मुझे बोलने का अवसर दिया है, इसलिए खुले दिल से यह सब बात कह रहा हूँ । निश्चित रूप से स्व-शासन की दिशा में आगे बढ़ने से पहले हमें इन सब चीजों में सुधार करना चाहिए । अब मैं आपके सामने एक और दृश्य पेश करता हूँ । हमारी कल की मंत्रणाओं का सभापतित्व करने वाले महाराज ने भारत की गरीबी का जिक्र किया था । अन्य वक्ताओं ने भी उस पर खूब जोर दिया । परन्तु जिस पंडाल में वायसराय (लार्ड हार्डिंग) ने शिलान्यास का संस्कार सम्पन्न किया, वहाँ हमने क्या देखा ? निश्चित ही एक बड़ा भड़कीला तमाशा और रत्नाभूषणों कि ऐसी प्रदर्शनी जिससे पेरिस से आए बड़े आभूषण निर्माताओं की भी आँखें चौंधिया गई थी । मैं इन सजे-धजे भद्र लोगों की तुलना देश के करोड़ों गरीबों से करता हूँ तो इन महानुभावों से मेरा यह कहने का मन करता है, 'भारत की मुक्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक आप लोग इन बहुमूल्य आभूषणों को उतारकर अपने गरीब देशवासियों की अमानत के रूप में नहीं रख देते । तब तक भारत का निस्तार नहीं है ।' मैं समझता हूँ कि महाराज सम्राट व लॉर्ड हार्डिंग यह नहीं चाहते होंगे कि महाराज-सम्राट के प्रति अपनी सच्ची वफादारी दिखाने के लिए यह जरूरी होगा कि हम अपने आभुषण बक्सों को खँगालें और सिर से पैर तक आभूषणों से लद जाएँ । मैं अपनी जान को जोखिम में डालकर आपके लिए स्वयं किंग जॉर्ज का संदेश ला सकता हूँ कि उनकी ऐसी कोई शर्त नहीं है ।
              महोदय, मैं जब भी भारत के किसी बड़े शहर में कोई विशाल महल बनाए जाने की बात सुनता हूँ, चाहे वह ब्रिटिश भारत में हो या देशी राजाओं के शासन में, मुझे तुरन्त ही ईर्ष्या होने लगती है और मैं कहता हूँ, 'ओह, यह उन्हीं किसानों के पैसों से बन रहा है ।' हमारी आबादी के 75 प्रतिशत से अधिक लोग कृषक हैं और मिस्टर हिगिन-बॉथम ने कल रात अपनी मनोहर भाषा में कहा कि यह वे लोग हैं, जो एक स्थान पर दो घास उगाते हैं । परंतु यदि हम उनकी मेहनत का लगभग सारा फल हड़प लेते हैं या किसी और को हड़पने देते हैं तो स्व-शासन के लिए यह कोई उचित भावना नहीं होगी । हमारी अपनी मुक्ति कृषक के जरिए ही आ सकती हैं । न तो वकील, न डॉक्टर और न ही धनाढ्य भू-स्वामी उसे सुनिश्चित कर सकते हैं और अंत मे वह बात, जो कम महत्वपूर्ण नहीं है, बताना मेरा परम कर्तव्य है । मेरा कर्तव्य मजबूर करता है उस चीज का जिक्र करने के लिए, जो पिछले दो-तीन दिनों से हमारे दिमागों को परेशान कर रही है । जब वायसराय बनारस की सड़कों से गुजर रहे थे । जगह-जगह जासूस लगा दिए गए थे । हम सभी में भय व्यपात था । हमने स्वयं से पूछा था, 'यह अविश्वास क्यों ?' क्या यह लार्ड हार्डिंग के लिए भी बेहतर नहीं होता कि वे मौत के साए में जीते रहने के बजाए मर जाते ?
            परन्तु एक शक्तिशाली सार्वभौम राष्ट्र के प्रतिनिधि के लिए शायद यह उचित न होता । हमारे पीछे जासूस लगा देना उन्हें जरूरी जान पड़ता होगा । हम चाहे चिढ़ें, कुढ़ें या रोश करें, परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपनी अधीरता में आज के भारत ने विप्लववादियों की एक फौज खड़ी कर दी है । मैं स्वयं भी एक विप्लववादी हूँ, परन्तु एक दूसरी तरह का । परन्तु हमारे बीच विप्लववादियों का एक वर्ग है और यदि मैं उस वर्ग तक पहुँच सकूँ तो उनसे कहूँगा कि भारत में उनके विप्लववाद की कोई गुंजाइश नहीं है, यदि विप्लववाद के सहारे भारत को विजेताओं पर विजय प्राप्त करनी है तो यह भय का चिन्ह है । यदि हमें ईश्वर पर विश्वास है, ईश्वर से डरते हैं तो हमें किसी का डर नहीं होगा -  न महाराजाओं का, न वायसरायों का, न जासूसों का और यहाँ तक कि किसी जॉर्ज का भी नहीं ।
            अपने देश के प्रति उसके प्यार के लिए मैं हर विप्लववादी का सम्मान करता हूँ । अपने देश के लिए मर मिटने की उसकी भावना में निहित वीरता के लिए भी मैं उसका सम्मान करता हूँ ; परन्तु मैं उससे पूछता हूँ - क्या किसी को मारना सम्मानजनक है ? क्या एक हत्यारे का छुरा एक सम्मानजनक मृत्यु की गारंटी है ? मैं इसे नकारता हूँ । किसी धर्मग्रंथ में ऐसे तरीकों को उचित नहीं बताया गया है । यदि भारत की मुक्ति के लिए मुझे यह जरूरी लगे कि अंग्रेजों को यहाँ से चले जाना चाहिए या उन्हें यहाँ से निकाल दिया जाना चाहिए, तो मुझे यह घोषणा करने में कोई संकोच न होगा कि उन्हें यहाँ से जाना होगा और मुझे आशा है कि अपने उस विश्वास की रक्षा के लिए मैं मरने के लिए तैयार रहूँगा । मेरे विचार से, वह एक सम्मानजनक मृत्यु होगी । बम फ़ेंकनेवाला व्यक्ति गुप्त योजनाओं के तहत काम करता है, खुलकर आने से डरता है और पकड़े जाने पर एक बहके हुए उत्साह का खामियाजा भुगतता है ।
              मुझसे कहा जाता है कि 'यदि हमने यह न किया होता, यदि कुछ लोगों ने बम न फेंके होते तो बंगाल विभाजन आंदोलन के सन्दर्भ में हमें वह सब न मिला होता, जो हमें मिला ।' (श्रीमती बेसेंट - कृपया इसे बन्द कीजिए )। यही बात मैंने बंगाल में भी कही थी । जहाँ ब्यॉन ने सभा की अध्यक्षता की थी । मैं समझता हूँ कि जो कुछ मैं कह रहा हूँ वह आवश्यक है । यदि मुझे चुप रहने के लिए कहा जाता है तो मैं आज्ञा का पालन करूँगा । ( अध्यक्ष की ओर मुड़ते हुए )  मुझे आपके आदेश की प्रतीक्षा है । यदि आप ऐसा समझते हैं कि मेरे इस तरह बोलने से मैं देश की और सम्राज्य की सेवा नहीं कर रहा हूँ तो मैं निश्चित रूप से चुप हो जाऊँगा । ( 'बोलते रहिए' का शोर फिर अध्यक्ष - 'कृपया अपना प्रयोजन स्पष्ट करें' ।) मैं केवल..... (एक और व्यवधान ) । मित्रो, इन रुकावटों के कारण कृपया नाराज न हों । यदि आज की शाम श्रीमती बेसेंट मुझे चुप रहने के लिए कहती हैं तो इसलिए कि वे भारत को इतना प्यार करती हैं और वे समझती है कि आप युवा श्रोताओं के सामने मैं यह बोलकर गलती कर रहा हूँ । परन्तु फिर भी, मैं इतना ही कहूँगा कि मैं भारत को दोनों ओर के संदेहों से युक्त वातावरण से मुक्त कराना चाहता हूँ । यदि हमें अपने लक्ष्य प्राप्त करने हैं, हमारे पास ऐसा संदेह होना चाहिए, जो पारस्परिक प्रेम और विस्वास पर आधारित हो । अपने घरों में गैर-जिम्मेदारी से बात करने के बजाय क्या यह बेहतर नहीं है कि हम इस कॉलेज के साए में बात करें ? मैं समझता हूँ कि यदि हम इन विषयों पर खुलकर बात करे तो वह कहीं ज्यादा बेहतर होगा ।  मैं बड़ी सफलता के साथ ऐसा पहले भी कर चुका हूँ । मैं जानता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं है, जिसे विद्यार्थी न जानते हो । इसलिए मैं सर्चलाइट को अपनी ओर ही निर्देशित करता हूँ । मुझे अपने देश से इतना प्यार है कि मैं अपने विचार आपके साथ बाँट रहा हूँ ; और आपसे निवेदन करता हूँ कि भारत में विप्लववाद के लिए कोई स्थान नहीं है । हम जो कुछ अपने शासकों से कहना चाहते हैं, वह साफ-साफ खुलेआम कहें और यदि हमारी बातें उन्हें अच्छी न लगें तो उनके परिणामों का सामना करें । परन्तु हम उन्हें गाली न दें ।
            मैं अभी उस दिन अति-निंदित सिविल सर्विस के एक सदस्य से बात कर रहा था । उस सेवा के सदस्यों और मेरे बीच बहुत कम समानता है ; परन्तु जिस ढंग से वे आपसे बात कर रहे थे, उसके लिए मैं उनकी प्रशंसा किये बिना न रह सका । उन्होंने कहा कि 'गाँधी, क्या आप एक क्षण के लिए भी यह समझते हैं किहम सब सरकारी नौकर होकर बहुत बुरे हैं और यह कि हम जिस जनता के प्रशासन के लिए यहाँ आए हैं, उनका दमन करना चाहते हैं ?' मैंने कहा, 'नहीं ।' उन्होंने कहा, 'फिर यदि आपको ऐसा अवसर मिले तो दो शब्द इस अति-निंदित वर्ग के पक्ष में भी बोल दीजिये ।' और वहीं दो शब्द बोलने के लिए मैं यहाँ आया हूँ । हाँ, भारतीय सिविल सेवा के कई सदस्य रोब रखने वाले हैं, वे अत्याचारी हैं और विचारशून्य भी । उनके लिए और भी कई विशेषण उपयोग किये जा सकते हैं । ये सभी बातें मैं स्वीकार करता हूँ और यह भी कि कुछ निश्चित वर्ष भारत में रहने के बाद उनमें से कुछ सारहीन हो चुके हैं । परंतु यह क्या शब्द है ? यहाँ आने से पहले वे सज्जन थे और यदि वे किसी सीमा तक अपना भी चरित्र खो बैठे हैं तो यह हमारा ही प्रतिबिंब है । आप स्वयं विचार करके देखिए, एक आदमी जो कल तक अच्छा था, मेरे संपर्क में आने के बाद बुरा हो गया तो अपने पतन के लिए वह जिम्मेदार है या मैं ? भारत आने के बाद चापलूसी और झूठ का जो वातावरण उन्हें घेर लेता है, वह उन्हें भ्रष्ट बना देता है जैसा कि वह हममें से कई को भी बना देता है । कभी कभी स्वयं पर दोष ले लेना अच्छा हैं । यदि हमें स्व-शासन का अवसर मिलता है तो वह हमें लेना ही होगा । हमें स्व-शासन कभी दिया नहीं जाएगा । आप ब्रिटिश साम्राज्य और ब्रिटिश राष्ट्र का इतिहास देखिए । जैसे स्वतंत्रता-प्रेमी वे हैं, तो ऐसे लोगों को स्वतंत्रता देने के पक्ष में वे कभी न होंगे, जो उस स्वतंत्रता के लिए संघर्ष न करें । यदि आप चाहे तो बोअर युद्ध से शिक्षा ले सकते हैं । जो लोग कुछ ही वर्ष पहले उस साम्राज्य के शत्रु थे, अब मित्र हो गए हैं । ( अचानक भाषण में फिर व्यवधान हुआ और सभापति सहित कई लोग मंच छोड़कर जाने लगे । इसलिए भाषण अचानक ही समाप्त हो गया ।)





सन्दर्भ ग्रन्थ :- मदनमोहन मालवीय नवजागरण का लोकवृत , डॉ• समीर कुमार पाठक

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