आस्था से अनास्था तक

 

आस्था से अनास्था तक

       नास्तिक क्यों हूं। यह 48 पेजों की एक लघु पुस्तिका है। जो ई.वी. पेरियार और भीमराव अंबेडकर द्वारा संपादित है। इसमें भगत सिंह के तीन लेख तथा बी. आर. अंबेडकर व ई. वी. पेरियार के संपादित दो लेखों का संग्रह है। यह पुस्तक क्रमशः पांच अध्याय में विभाजित है, जो क्रमशः मैं नास्तिक क्यों हूं? विद्यार्थी और राजनीति, नौजवान भारत और लाहौर का घोषणा पत्र, तीन शहीद (जनता अखबार में बी. आर. अंबेडकर की संपादकीय) ई. वी. रामास्वामी पेरियार द्वारा संपादित तमिल से अंग्रेजी अनुवाद (पत्रिका कुदी अरासु में 29 मार्च 1931 में प्रकाशित संपादकीय)

    आजादी से पूर्व अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ क्रांतिकारी कामों के परिणाम स्वरूप मात्र 23 साल की उम्र में हुई फांसी की सजा ने भगत सिंह को एक सामान्य क्रांतिकारी से शहीद-ए-आजम बना दिया। किंतु विचारणीय बात तो यह है कि बचपन से आस्तिक व एक कट्टर आर्य समाजी परिवार से होने के बाद भी किस तरह वह नास्तिकता की विचारधारा की ओर प्रवाहित हो गए। निश्चय ही ये कोई एक दिन की प्रक्रिया नहीं रही होगी। ये पुस्तक आपको बताती है कि लाहौर के सेंट्रल जेल में स्वतंत्रता सेनानी बाबा रणजीत सिंह और भगत सिंह के बीच ईश्वर के अस्तित्व को लेकर हुए एक तर्क-वितर्क का परिणाम है "मैं नास्तिक क्यों हूं? "जिसमें उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल किए हैं, और इस संसार के निर्माण, मनुष्य के जन्म मनुष्य के जीवन में ईश्वर की उपस्थिति, उसकी दीनता, संसार में फैली अराजकता व वर्ग भेद जैसी महामारी का विश्लेषण भी किया है। इन सब तीक्ष्ण व ज्वलंत विचारधारा के कारण ही भगत सिंह द्वारा लिखे लेखों में सबसे चर्चित रहा है "मैं नास्तिक क्यों हूं?" 27 सितंबर 1931 में लाहौर के ही एक साप्ताहिक अखबार "द पीपल" (लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित) में प्रकाशित हुआ। जिसमें भगत सिंह की विचारधारा को पढ़कर उनके बाह्य व्यक्तित्व के साथ ही उनके अंतःकरण को भी जानने व समझने का अवसर मिला। अपने पिता की शिक्षा और विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया था। अपनी स्नातक की पढ़ाई दौरान भारत की आजादी के लिए क्रांतिकारी पार्टी से जुड़ने के बाद तक उनकी आस्था प्रभावित नहीं हुई थी। उस समय तक वह एक आदर्शवादी क्रांतिकारी थे। अध्याय एक में इस बात का उल्लेख है कि जैसे - जैसे व्यक्ति किताबी ज्ञान को अपने व्यवहारिक जीवन में रूपांतरित करता है, वैसे वैसे ही वह जीवन के अवरोधों को समाप्त करता हुआ जीवन में होने वाली प्रत्येक परिस्थिति या बात को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगता है। कितने अर्थ मूलक उदाहरण से भगत सिंह ने इस बात को समझाया है कि गरीबी में पैदा होना बुरा नहीं है किंतु उसी गरीबी में जीवन पर्यंत रहते हुए समाप्त हो जाना खराब बात है। व्यक्ति को अपने ही देश काल परिस्थिति में उलझ कर नहीं रह जाना चाहिए, बल्कि इसकी दहलीज लांघकर बाहर घटित हो रहे कुछ नये की तलाश कर जीवन को सरल व सहज बनाना चाहिए। अध्याय एक बताता है कि समाज के प्रत्येक नागरिक को सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय की भावना से ओतप्रोत होना चाहिए, तभी राष्ट्र की एकता व अखंडता की रक्षा हो पाएगी। सत्य का ज्ञान ही सभी बंधनों व मायाजाल को तोड़ देता है। पुस्तक का अध्याय एक बताता है कि आस्तिक होकर मानवीय मूल्यों की बलि देने से बेहतर है कि नास्तिक होकर उनकी (मानवीय मूल्यों की रक्षा की जाए। जन्म से मृत्यु तक संघर्षरत व्यक्ति का यह प्रश्न पूछना लाजमी है कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ने ऐसी दुनिया बनाई ही क्यों जो दुखों व संतापों से भरी हुई है जहां एक भी व्यक्ति पूरी तरह से संतुष्ट नहीं है, यदि वह किसी तरह के नियमों में बंधे हुए हैं तो उनमें और आम मनुष्यों में क्या अंतर है? संसार में ऐसे न जाने कितने ही साक्ष्य इस बात के पक्ष में पड़े हुए हैं जो साबित करते हैं कि मनुष्यों के निजी स्वार्थों ने ही ईश्वर को गढ़ा है, और उसी के भय ने उसकी जय - जयकार की है। ईश्वर ने मनुष्यों को नहीं अपितु मनुष्यों ने ईश्वर का निर्माण किया है।

पुस्तक पढ़ते हुए न जाने कितने ही विचार मन में बनते और बिगड़ते हैं, जैसे कितना सरल और सहज होता होगा नास्तिको का जीवन! न पाप पुण्य का खेल, न प्रारंभ व पुनर्जन्म की चिंता, न ही किसी कर्मकांड व विधि-विधान का बवंडर, शायद मानव ने अपने जीवन की शुरुआत ऐसे ही की होगी।

अध्याय 2 और 3 क्रमशः "विद्यार्थी और राजनीति" तथा "नौजवान भारत सभा लाहौर का घोषणा पत्र" दोनों ही देश के प्रत्येक विद्यार्थी व युवा वर्ग को पढ़ना चाहिए। कितना दुःखद है आज के विद्यार्थी अपने देश की राजनीति में हिस्सा तो ले रहे हैं लेकिन प्यादे की तरह। भगत सिंह ऐसी शिक्षा को ही निकम्मी कहा है जो विद्यार्थियों के स्व-चिंतन को ही समाप्त कर दे। युवा विद्यार्थियों को देश के प्रत्येक राजनीतिक मसले व फैसलों को तार्किक दृष्टिकोण से समझना चाहिए। तथा उस पर अपने विचारों को निष्पक्ष और स्वतंत्र रूप से प्रस्तुत करना चाहिए। एक सुदृढ़ राष्ट्र के निर्माण में यह एक महत्वपूर्ण कड़ी है। किसी भी राष्ट्र के सुदृढ़ीकरण में उसके नौजवानों की अहम भूमिका होती है, क्योंकि वह बहादुर, उदार व भावुक भी होते हैं, क्योंकि मानव जाति का संपूर्ण इतिहास नौजवान आदमी और औरतों के खून से लिखा है, क्योंकि सुधार व परिवर्तन हमेशा नौजवानों की शक्ति, साहस, आत्मविश्वास, भावात्मक विश्वास तथा आत्मबलिदान के बल पर ही प्राप्त हुए हैं। जापान, पोलैंड, ऑस्ट्रिया, तुर्क आदि देशों का इतिहास ऐसे कई सुनहरे उदाहरणों से भरे पड़े हैं, जहां अपने राष्ट्र के निर्माण व उद्धार में उन्होंने स्वयं को कुर्बान कर दिया। इसके विपरीत एक आज का युवा वर्ग है जो देश की गंदी राजनीति का शिकार है। जिन्हें सिर्फ राष्ट्र की एकता व अखंडता के लिए मिलकर सोचना चाहिए, वह धर्म व जाति के जीर्णोद्धार में लगे हुए हैं। आज धार्मिक अंधविश्वास व कट्टरपन राष्ट्र की प्रगति और विकास में बहुत बड़े बाधक हैं। मनुष्य को हर हालत में इससे मुक्त हो जाना चाहिए। इसलिए इन अध्यायों में बार-बार समता व साम्यवाद की बातों पर उदाहरणार्थ बल दिया गया है। और होना भी यही चाहिए, कि जो चीजें आजाद विचारों को चर्दाश्त न करे, तो उनका समाप्त हो जाना ही बेहतर है। इसके लिए नौजवानों को स्वतंत्रतापूर्वक, गंभीरता, शांति व सब्र के साथ चिंतन करना चाहिए। जिसके लिए बहुत जरूरी है कि वह मक्कार व बेईमान लोगों से दूर रहे। अपने तथा अपनों के हित से पहले देश हित की चिंता करें।

अंतिम के दो संपादकीय (बी. आर. अंबेडकर का तीन शहीद तथा ई. वी. रामासामी पेरियार कुदी अरासु) लेखों में जिस ऐतिहासिक घटना (भगत सिंह आदि को फांसी) के प्रतिक्रिया रूप में उनके तीक्ष्ण विचार मर्माहत भारतीय जनता के लिए मरहम का काम करते हैं। गौरतलब है कि आज भी लोकतंत्र के रक्षकों द्वारा लोकतांत्रिक मूल्यों पर लोकतांत्रिक तरीके से बार-बार प्रहार किया जाता है। किस तरह से निजी स्वार्थों वह अपनी सत्ता का वर्चस्व बनाए रखने के लिए बेचारी व निर्दोष जनता का इस्तेमाल किया जाता है और जो भी इन सब के खिलाफ आवाज उठाता है उसे लोकतंत्र के खिलाफ बताकर खामोश कर दिया जाता है। । इस बात को बताते हुए राजेश जोशी जी की seragrath Change कविता "मारे जायेंगे" का ध्यान स्वतः ही मन में आ जाता है।

   कुल मिलाकर यह पुस्तकं उन लोगों को विशेष रूप से पढ़ना चाहिए जो धर्म व आस्था के नाम पर लोकतांत्रिक मूल्यों का गला घोंटते हैं और मानवता को कई वर्गों में बांट कर रखे हुए हैं। यही सब कारण है कि आज के समाज में भी भगत सिंह की वैचारिकी काफ़ी हद तक प्रासंगिक है। वर्तमान समाज द्वारा उनके लेखों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है।

 

शोध छात्रा

प्रज्ञा पाण्डेय

हिन्दी और अन्य भारतीय भाषा विभाग

 महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ

 वाराणसी

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