बालमन

 बालमन 

बाल साहित्य के विकास में बाधक तत्व

विशाल भारत देश में बाल साहित्य हमेशा विभिन्न समस्याओं से जूझता रहा है। प्रौढ़ साहित्य की तुलना में बाल साहित्य कम ही लिखा जा रहा है, क्योंकि इसकी पूछताछ करनेवालों, खोज खबर लेनेवालों की कमी हमेशा रही है। कोई बाल साहित्यकार यदि अपनी कोई कृति लेकर मुद्रण कराने की दृष्टि से किसी मुद्रक और प्रकाशक के पास जाता है तो वह भी उसे लौटा देता है। इसका कारण बाल साहित्य के पाठकों का अभाव है। यदि किसी पुस्तक की अधिक बिक्री की सम्भावना होती है, तो ही प्रकाशक उसे प्रकाशित करने को तैयार होते हैं।

मुद्रण की समस्या

भारत में मुद्रण कला का प्रारम्भ अठारहवीं शती के बाद प्रारम्भ हुआ है। प्रारम्भ होने पर भी लम्बे समय तक साफ सुथरे और आकर्षक मुद्रण का अभाव रहा है। बच्चे सुन्दर, रंग बिरंगे चित्रोंवाली पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं को अधिक पसंद करते हैं। सामान्य कोटि की बाल साहित्य की पुस्तकों को बच्चे नहीं देखते। बच्चे चित्रोंवाली पुस्तकें ही अधिक उत्सुक होकर देखते हैं। भारत में मुद्रण सम्बन्धी समस्याओं के सम्बन्ध में हरिकृष्ण देवसरे ने इस प्रकार लिखा है- "भारत में छपाई कला का इतिहास अत्यन्त प्राचीन न होते हुए भी उसने छपाई में काफी उन्नति की है। बाल साहित्य के विकास को आरम्भ में गति न मिल पाने का एक कारण यह भी था कि छपाई की सुविधाएँ अधिक नहीं थीं। बच्चे केवल वही पुस्तकें पसंद करते है जो रंग-विरंगी हों, चित्रमय हों तथा अच्छे कागज पर छपी हों। छपाई की सुविधाओं के अभाव में ऐसी पुस्तकें प्रकाशित करना कठिन था। "102 मुद्रण की यह कला विदेशों की तर्ज पर भारत में प्रारम्भ हुई थी। शुरू-शुरू में यह व्यवसाय केवल धन कमाने तक सीमित रहा। बाल साहित्य की पुस्तकें ये मुद्रक और प्रकाशक एक तो कम छापते थे और दूसरे आकर्षणविहीन होने के कारण बच्चे उन्हें खरीदते नहीं थे। अंग्रेजी शासनकाल में विदेशों के बच्चों के लिए रंग-बिरंगे चित्रोंवाली आकर्षक पत्रिकाएँ आती थी, परन्तु वे अधिक मँहगी होने के कारण बाल पाठकों की पहुँच से दूर थीं। भारत में मुद्रण व्यवसाय बीसवीं शताब्दी में अच्छा चला, परन्तु बाल साहित्य के लिए उनका रवैया पूर्ववत ही रहा। व्यवसाय की ओर अधिक और बाल रुचि की ओर कम ध्यान दिया जाता था। एक कारण यह भी था कि भारतीय मुद्रकों के पास मुद्रण के साधन भी विदेशों की तुलना में अपर्याप्त थे। भारत में बाल साहित्य के प्रकाशन के गिरते हुए स्तर के सम्बन्ध में डॉ. देवसरे ने टिप्पणी की है- "हमारे यहाँ के प्रकाशकों में कुछ को छोड़कर अधिकांश ऐसे हैं, जिन्हें पुस्तक प्रकाशन या विक्री का कोई ज्ञान नहीं है। भारतीय भाषाओं के अधिकांश प्रकाशक वे पुस्तक विक्रेता है, जिनमें पुस्तक प्रकाशन के लिए आवश्यक तकनीक, उसके लिए योग्य व्यक्ति साधनों का नितान्त अभाव होता है। वर्तमान समय में प्रकाशन व्यवसाय की उन्नति हुई है, साधन भी बढ़े हैं। बाल साहित्य की पुस्तकें भी छपने लगी हैं। इसका सबका श्रेय भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को दिया जाना चाहिए, जिन्होंने अपना जन्मदिन बच्चों के नाम समर्पित कर दिया था। पं. नेहरू ने बच्चों के लिए दिये गए संदेश में कहा भी था- विगत कुछ वर्षों से हमारे देश में सभी भाषाओं में बच्चों की पुस्तकों के प्रकाशन कार्य में कुछ प्रगति हुई है। इतने पर भी हम अभी बहुत से ऐसे देशों से पिछड़े हुए हैं, जो कि बच्चों के लिए मनमोहक पुस्तकें और पत्रिकाएँ प्रकाशित करते हैं। हमारे यहाँ जो लोग पुस्तकें लिखते और प्रकाशित करते हैं, उनमें बहुत कम ऐसे हैं जो यह सोचते है कि बच्चों की वास्तविक माँग क्या है।104 बच्चों के लिए साहित्य लिखने और प्रकाशित करने के सम्बन्ध में अखिल भारतीय प्रकाशक संघ का एक सम्मेलन लखनऊ में हुआ था, जिसमें बच्चों के लिए अच्छी पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएँ छापने पर विचार किया गया था, परन्तु धनाभाव के कारण अथवा साधनों की कमी के कारण वह सब कुछ सम्भव नहीं हो पाया। बाल साहित्य की पुस्तकें आकार प्रकार तथा रंग-बिरंगे चित्रों और अच्छी श्रेणी के कागज के कारण मँहगीं हो जाती है। इस कारण इन प्रकाशकों को घाटा भी उठाना पड़ता है, क्योंकि कीमत अधिक होने के करण नई और आकर्षक बाल पत्रिकाओं और पुस्तकों की खपत भी कम हो जाती है। यही कारण है कि प्रकाशन सम्बन्धी समस्याएँ बाल साहित्य में अवरोधक बनी हुई हैं।

बाल मनोविज्ञान की उपेक्षा

बाल साहित्य लेखन के लिए बाल मनोवृत्तियों की सम्यक समझ होना जरूरी है। सैकड़ों की संख्या में बाल साहित्यकार बाल साहित्य लिख रहे हैं, पर अधिकांशतः बाल रुचियों और बाल मनोवृत्तियों की अनदेखी की जा रही है। ऐसा होने के कारण बच्चे उस साहित्य से लाभान्वित नहीं हो पाते। अतएव बाल साहित्य लिखते समय साहित्यकारों को इस बात का विचार कर लेना चाहिए कि वे बच्चों के लिए लिख रहे हैं और बच्चों के मन का अपना विज्ञान होता है। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने इस समस्या पर विचार प्रकट करते हुए लिखा है- "बाल साहित्य रचना का मूल आधार बाल मनोविज्ञान है। बाल साहित्य लेखक जब तक इस आधार भूमि को पुस्तकों द्वारा कम तथा व्यवहारिक अनुभव द्वारा अधिक सुदृढ़ नहीं बनाता, तब तक वह सफल बाल साहित्य लेखक नहीं बन सकता है। 10% बच्चे आदेश, उपदेश नहीं सुनना चाहते। उन्हें तो सतत् क्रियात्मकता चाहिए। बालकों की मनोवृत्ति के अनुरूप ही उनकी प्रवृत्ति होती है। उनके मन की दुनिया विचित्र होती है। यह बाल विश्व, बड़ों से भिन्न होता है। जिस साहित्यकार ने बच्चों के मनोविज्ञान को समझ लिया और बच्चों की क्रियात्मक गतिविधियों का खुलापन जान लिया, वह सफल बाल साहित्यकार होता है। इस विषय में चिंता समय-समय पर व्यक्त की जाती रही है तथा बाल साहित्यकारों ने उसे हृदयंगम करने का प्रयास भी किया। 'बाल सखा बाल पत्रिका के रजत जयंती समारोह के अवसर पर वयोवृद्ध बाल साहित्यकार लल्लीप्रसाद पाण्डेय ने बाल मनोविज्ञान के अनुसार बाल साहित्य की रचना करने पर बल देते हुए कहा था- "बाल साहित्य वही लिख सकता है जो अपने आपको बच्च्चों जैसा बनाले। बड़े होकर बच्चा बनना मुश्किल है और उससे भी अधिक मुश्किल है बच्चा बनकर उनके अनुकूल लिखना। इसलिए जो लोग बच्चों के लिए लिखते हैं वे एक पवित्र कार्य करते हैं। उनका कार्य साधना का कार्य है। 106 विदेशों में बाल साहित्य रचना पर अधिक व्यापक रूप में चिन्तन-मनन किया गया, बालकों की मनोवृत्तियों का सम्यक रूप से अध्ययन करने के बाद ही बाल साहित्य लिखे जाने पर बल दिया गया। बाल मनोवृत्ति बड़ों की अपेक्षा भिन्न और विशिष्ट होती है। बच्चों में जिज्ञासा, उत्सुकता और तीव्र ललक होती है। इसलिए वे आसानी से तृप्त नहीं होते। बाल साहित्य रचना के प्रसिद्ध समीक्षक पाल हेजार्ड ने बाल साहित्य रचना को एक विशेषज्ञ और तकनीशियन के काम की तरह बतलाया है। बालकों के लिए बड़े लोग साहित्य लिखते हैं, क्योंकि बच्चे स्वयं तो कुछ लिख नहीं सकते हैं और बड़े लोग बच्चों की तरह सोच नहीं सकते हैं। इसी समस्या पर विचार करते हुए 'पाल हेजार्ड' ने बाल साहित्य लेखकों के लिए कुछ सुझाव दिए हैं-"आपको आज्ञा नहीं देनी है, बल्कि आज्ञा माननी है। बच्चे आपके मालिक होंगे। इसलिए बिना मौलिकता और सजीवता के लिखना आरम्भ न करें। जहाँ तक सम्भव हो अपनी कहानी का विकास करने के लिए संवादों का प्रयोग करें क्योंकि वे चाहते हैं कि आप उनसे बातें करें। बिना कुछ कहे, उन्हें जितनी क्रियात्मकता दे सकते हों, दें। उनकी जिज्ञासा शांत हो जाने पर ही आप कहानी समाप्त न कर दें, बल्कि उसके बाद भी कुछ आश्चर्यों के बारे में जानने के लिए उनके मस्तिष्क को खुला छोड़ दें, जिससे उनके ज्ञान का क्षितिज सीमित न बनने पाये। ऐसा इसलिए भी आवश्यक है कि वे आपकी कहानी पढ़ने के बाद, एक कहानी अपने मन में अपनी बना लेते हैं।"107 पॉल हेजार्ड के उपर्युक्त कथन से विदित होता है कि बच्चों का मनोजगत बड़ों की अपेक्षा अधिक क्रियात्मक और प्रसारवर्ती होता है। बच्चों को जो खिलौने दिए जाते हैं, उन्हें वे तोड़फोड़ कर उनकी रचनात्मक विधि का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। बड़ों की दृष्टि में बच्चे ने खिलौना तोड़ा है, पर बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से यह कार्य ध्वंस नहीं रचनात्मक है। बच्चे आज खिलौनों और वस्तुओं को तोड़ते फोड़ते हैं, तो कल वे उन्हें नये सिरे से नये रूप में निर्मित भी करेंगे। यही बात बच्चों के लिए लिखे जानेवाले साहित्य में भी होती है। बाल साहित्यकारों के द्वारा लिखी गई कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास आदि को पढ़कर या सुनकर बच्चे एक नई कहानी अपने मन में अलग से निर्मित कर लेते हैं। इसलिए बाल साहित्यकारों को यह समझ लेना चाहिए कि बच्चों की आंतरिक अनुभूति और बाह्य क्रियायें बड़ों की तुलना में विशिष्ट होती है। बच्चे जब आनन्द में मग्न होते हैं तो, वे पेड़, पौधे, फूल, पत्ती, चिड़िया, बकरी आदि से इस तरह बातें करते हैं, जिस तरह से बड़े लोग आपस में बातें करते हैं। परन्तु बच्चों और बड़ों की बातों में मौलिक अन्तर होता है। बड़ों की अनुभूति परिस्थितियों के वशीभूत होकर कठोर और जटिल हो जाती है। जबकि बच्चे सहज स्वाभाविक रूप से भोले-भाले सरल और कोमल मनोवृत्तियोंवाले होते हैं। बस, यही समस्या खड़ी हो जाती है। बड़े लोग अपने हिसाब से लिखते हैं और बच्चों की अनुभूतियों को अनदेखा कर जाते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि बाल साहित्य के लेखक बाल रुचियों, बाल मनोवृत्तियों का ध्यान रखते हुए पूर्ण मनोयोग से बाल साहित्य लिखें। वर्तमान काल में बहुत से बाल साहित्यकार बाल मनोवृत्तियों के अनुकूल बाल साहित्य लिख रहे हैं।

अभिभावकों में रुचि का अभाव

बाल साहित्य परिस्थितियों का शिकार रहा है। वर्तमान युग आधुनिकीकरण का है। शहरों का आकर्षण व्यक्ति को शहरों की ओर खींच रहा है। परन्तु शहरों का भीड़-भाड़ वाला प्रदूषणयुक्त परिवेश उसे वहाँ से भागने पर विवश करता है। इस प्रकार एक विचित्र सी खींचतान मची हुई है। आधुनिक वैज्ञानिक और यांत्रिक प्रगाति के दौर में हर अभिभावक चाहता है कि उसका बच्चा शहर में रहकर अपने व्यक्तित्व का निर्माण करें। इसमें एक यह भी विचार छिपा है कि शहर में बच्चे को पढ़ने के लिए भेज कर अभिभावक निश्चिंत हो जाते हैं कि वे अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुके। पर ऐसा होता नहीं। उनकी अनदेखी से बच्चे लावारिश होकर बिगड़ जाते हैं। छोटे बच्चों का व्यक्तित्व माता-पिता से अलग होकर पूर्ण नहीं बन सकता, परन्तु आज के माता-पिता उच्चकोटि के नर्सरी और पब्लिक स्कूलों में बच्चों को भर्ती करवाकर उन्हें अपने परिवेश और अपनी संस्कृति से दूर कर देते हैं। आज की नई जीवन शैली में माता-पिता और अभिभावक व्यस्त रहने लगे हैं। इसलिए बच्चों की देखरेख का समय उनके पास नहीं है। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने लिखा है- "माता-पिता का अत्याधिक व्यस्त रहना और बच्चों के प्रति पूरी तरह सजग न होना आज की आधुनिकता का सबसे विषैला तत्व है, जो आने वाली पूरी पीढ़ी को दमित, व्याकुल और विद्रोही बना रही है। केवल कर्तव्य समझकर बच्चों के दायित्वों को पूरा करना पर्याप्त नहीं है।100 इस कथन का स्पष्ट आशय यह है कि आधुनिकता की चपेट में आकर अभिभावक बच्चों की अनदेखी करने लगे हैं। अभिभावक जिसे बच्चों के व्यक्तित्व का विकास समझ रहे हैं. असल में वह वैसा नहीं है। आज के परिवेश में नई चमक-दमक में, रहन-सहन के स्तर के ऊँचे होने के कारण बच्चे जल्दी समझदार प्रतीत होने लगा बायी लहेज किया उठने बैठने व्यवहार करने के आधुनिक आर-तरीके और भाषायी लहजे सिखाये जाते हैं। इस प्रकार के प्रयासों में बच्चों बचपन असमय गायब होने लगता है। हम चार-पाँच साल के बच्चे को बच्चा जैसा नहीं रहने देना चाहते। यह बच्चों की प्रगति नहीं उनकी उपेक्षा है। आधुनिक कहलाने के चक्कर में अभिभावक बच्चों से उनका सहज स्वाभाविक परिवेश छीन लेते हैं। ऐसी स्थिति में आज के युग में बच्चों के प्रति सही ढंग से कर्तव्य निर्वाह एक आवश्यकता है। इस आवश्यकता का ही एक महत्वपूर्ण पहलू है-बच्चों को बाल साहित्य खरीदकर देना। यहाँ यह स्वीकार किया जा सकता है कि आर्थिक विषमताओं के इस युग में सम्भवतः बाल साहित्य खरीदने के लिए सभी अभिभावक सक्षम न हों, किन्तु हमें यह भी कहने में संकोच नहीं है कि जो सक्षम हैं, वे भी इस दिशा में पीछे ही रहते हैं।"100 तात्पर्य यह है कि आज के अभिभावकों द्वारा बच्चों की जरूरतों की उपेक्षा की जा रही है। बच्चों को न तो अच्छा बाल साहित्य उपलब्ध कराया जा रहा है और न उनके व्यक्तित्व के अनुकूल परिवेश प्रदान किया जा रहा है। इससे बच्चों का भविष्य अनचाही दिशाओं की ओर मुड़ जाता है। यह सब अभिभावकों की बच्चों के प्रति रुचि के अभाव का परिणाम है।

दूर दर्शन एवं आधुनिक खेल साधनों का कुप्रभाव

मानव जाति प्रगतिगामी है। तभी तो समाज पाषाणयुगीन सभ्यता से आगे बढ़ते-बढ़ते विज्ञान और तकनीक के युग तक आ पहुँचा है। मनुष्य के हाथों में नवीन आविष्कारों के रूप में अनेक सिद्धियाँ प्रसिद्धियाँ हैं। विज्ञान की सहायता से मनुष्य ने ऐसी मशीनों का निर्माण कर लिया है कि अब सब कुछ मशीनें ही करने लगी हैं। इससे बाल साहित्य का बहुत नुकसान हुआ है। रेडियो और दूरदर्शन आज के युग की चर्चित खोजें हैं। मोबाइल, लैपटाप आदि ने मानव जीवन को ऐसा टिप-टॉप कर दिया है कि वह सब कुछ भूल जाता है। उसे उसकी इच्छित खुराक मशीनों से मिल जाती है। दूरदर्शन के माध्यम से नए खेलों के आविष्कार ने बच्चों को भी उलझा लिया है। अब अभिभावक बच्चों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझते और न बच्चे बाल साहित्य पढ़ने की इच्छा करते हैं। बच्चों के लिए दूरदर्शन पर खेल और मनोरंजन के तमाम चैनल चालू हैं- अब बच्चों को अपनी मदद आप करनी पड़ती है। यानि पुस्तकों से अपनी रुचि के अनुकूल कहानियों ढूँढ़कर पढ़ना, दादी-नानी के बजाय रेडियो से कहानी सुनना और जो उपलब्ध न हो उसे मित्रों से प्राप्त कर काम चलाना।" इससे सहज रूप में ज्ञात होता है कि बड़े होते हुए बच्चे आठ-दस साल की आयु में हैं। वैचारिक परिपक्व से लगने लगते हैं। दूर दर्शन पर प्रसारित खेल चैनलों में बच्चे ऐसे डूबे रहते हैं कि बाहरी दुनिया से उतने समय के लिए वे बेखबर हो जाते हैं और अपने अभिभावकों को अपने से अलग रहने का पूरा-पूरा समय दे देते हैं। अभिभावकों की दृष्टि में बच्चे अपने समय का सद्ययोग करते हैं, पर वस्तुतः यह केवल मार्गान्तरीकरण है। माता-पिता, अभिभावक अपने व्यवसाय में व्यस्त रहते हैं और बच्चे अपने आप अपने विकास का आधुनिक रास्ता ढूँढ लेते हैं। विकाशन पर आजकल अनगिनत खेल चैनल, चल झोना है। इनसे बच्चों का विविध आयामी मनोरंजन होता है, एक विशेष प्रकार का ज्ञानार्जन होता है पर वे विकि मूल संस्कृति से भटक जाते हैं। इन खेल चैनलों में कार्टून नैटवर्क, पोगों निक, डिजनी चैनल, हंगामा आदि हैं। इन नये चैनल्स में कुछ में बाल फेन्टेसी की कहानियाँ धारावाहिक रूप में आती हैं. जिनमें पोगो पर आनेवाला धारावाहिक 'छोटा भीम' भी है। इसमें बोलकपुर रियासत के राजा से जोड़कर किसी जादूगर या किसी लुटेरे, आक्रमणकारी, ठग आदि के किस्से प्रसारित किए जाते हैं। इसमें भीम और उसके साथी बोलकपुर के राजा को सफलता दिलाते हैं। अपने सत्य व्यवहार और शूरवीर व्यक्तित्व का प्रभाव भी भीम दर्शकों पर छोड़ता है। ये बाल कल्पना की अतिशयता से पूर्ण धारावाहिक बालकों को अपने से जोड़े रखते हैं। पर बच्चे अपने परिवेश से छूट जाते हैं। यथार्थ की अपेक्षा वे विशुद्ध कल्पना जगत में ही विचरण करते हैं। टी.व्ही. चैनलों पर आनेवाले खेलों के विज्ञापन या दूसरी दुनिया के विज्ञापन बच्चों को उनकी अपनी दुनिया से दूर कर देते हैं। दूर दर्शन' बच्चों के लिए जो कार्यक्रम प्रस्तुत करता है, उनमें बहुत से विदेशी संस्कृति और सभ्यता की सोच से युक्त होते हैं। जैसे 'औगी एण्ड कॉक्रोचिस', 'टाम एण्ड जैरी, डोरेमोन, फिनियस एण्ड फर्ल, निंजा वारियर आदि हालीवुड से सम्बन्धित जापानी खेल चैनल्स हैं। इस प्रकार के दूरदर्शनी खेल चैनलों के कारण बाल साहित्य का बहुत नुकसान हुआ है। इनमें उलझकर बच्चे बाल साहित्य की उपेक्षा करने लगते हैं। वे बाल साहित्य को पढ़ने की इच्छा और उत्सुकता से विहीन हो जाते हैं। एक बार दूरदर्शन के खेल चैनलों का स्वाद चख लेने के बाद बच्चे बाल साहित्य की उपेक्षा करने लगते हैं। फिर कुछ हद तक कॉमिक्स और चित्रकथाओं की पुस्तकें और पत्रिकाएँ ही बच्चों को आकर्षित कर पातीं हैं।

बढ़ता मानसिक तनाव

बाल साहित्य के लिए सबसे बड़ा खतरा मानसिक तनाव है। वर्तमान जीवन शैली अति व्यस्त जीवन शैली है। भूमंडलीकरण के इस दौर में पूरे विश्व के साथ संपर्क बढ़ने से जीवन स्तर बहुआयामी हुआ है। छोटे से गाँव से लेकर बड़े शहरों तक का जीवन भूमण्डलीकरण और विश्व बाजारवाद से प्रभावित हुआ है। आज हर व्यक्ति समृद्धि की दौड़ में बेतहाशा लगा हुआ है। इस दौड़ में बालक और बालसाहित्य बहुत पीछे छूट गया है। इसका कारण समृद्धि की दौड़ में आपाधापी करते मनुष्य का बढ़ता मानसिक तनाव है। आधुनिक सभ्यता के ये शब्द- भूमण्डलीकरण, औद्योगीकरण, विश्वबाजारवाद देखने सुनने में बहुत प्रांजल और सुन्दर लगते हैं, परन्तु जब इन शब्दों में पिसते व्यावहारिक जीवन को देखते हैं तब इनकी भयावहता ज्ञात होती है। हमारा जीवन जो भाषा की दृष्टि से सरलता की ओर जा रहा था, वह अब कार्यकलापों की दृष्टि से सरल से कठिन की ओर उन्मुख हो गया है। मशीनों के होते हुये भी आदमी मशीन बना हुआ है। विद्युत के आविष्कार के कारण अब दिन रात कारखाने चलते हैं। इन कारखानों में जीविका कमानेवाले लाखों करोड़ों लोग दिन रात मशीन बने रहते हैं। इसका तात्पर्य ये हुआ कि दिन रात दौड़ती हुई जिन्दगी को विश्राम करने का कोई अवसर नहीं मिलता। एक साधारण सी बात है कि जब व्यक्ति दिन-रात काम करेगा तो अपने बच्चों के लिये कितना समय निकाल पायेगा। महानगरों में तो यह स्थिति है कि व्यक्ति सौ-सौ, पचास-पचास किलोमीटर यात्रा करके कार्य करता है। बच्चों के जागने से पहले दिन का भोजन लेकर जानेवाला पिता रात को बच्चों के सो जाने के बाद घर लौटता है। बच्चे उसे पहचानते ही नहीं और किसी अजनबी व्यक्ति की तरह माँ से पूछते हैं कि माँ यह कौन है? ऐसी स्थिति में अलगाव और अपरिचय की प्रवृत्ति बढ़ जाती है जहाँ स्नेहहीनता और परिचयहीनता होती है, वहाँ जडता और तनाव का बढ़ना स्वाभाविक है। वर्तमान में जीवन स्तर को बनाये रखने के लिये पुरुष और स्त्री दोनों काम करने लगे हैं तथा बच्चे झूलाघरों में पलते-बढ़ते हैं। इस स्थिति में माता-पिता झूला घरों में भी बच्चों को भेजकर निश्चिंत नहीं हो पाते। एक अनजाना सा भय उन्हें सताता रहता है। इस प्रकार का मानसिक असंतुलन चिंता और भय, तनाव को जन्म देता है। इस सबका सीधा-सीधा प्रभाव बालसाहित्य पर पड़ता है, क्योंकि बाल साहित्य लेखक भी इन्हीं तनावग्रस्त लोगों में से एक हो सकता है। दूसरी तरफ ड्यूटी करने गये माता-पिता के बिना स्कूल, बाल विहार अथवा नौकरों की देख रेख में रह रहे बच्चे तनावग्रस्त होते हैं।

इस प्रकार की परिस्थितियाँ बाल साहित्य के लिये घातक होती हैं। इसके लिये जरूरी यह है कि बच्चों के लिये स्वस्थ वातावरण प्रदान किया जाये। जिन साहित्यकारों को बाल साहित्य लिखने की आदत हो, उन्हें भी तनाव से बचना चाहिये। अक्सर देखा गया है कि जो सहज स्वाभाविक बाल साहित्य लेखक है, उन्हें बच्चों के साथ खेलने में, रहने में आनन्द आता है। बच्चों के साथ बच्चा बनकर बाल मनोवृत्तियों का अनुभव करते हुये जो बाल साहित्य लिखा जाता है, वही वास्तविक बाल साहित्य होता है। बच्चों के सरल, कोमल मानसिक धरातल को कठोर परिस्थितियों और तनावग्रस्त वातावरण से बचाये रखना बहुत जरूरी है। ऐसा तभी संभव है जब बाल साहित्य लेखक स्वयं भी मानसिक तनाव से मुक्त हो।

 

 

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